एक दिन स्वामी विवेकानंद ट्रेन से यात्रा कर रहे थे और फर्स्ट क्लास में बैठे थे। स्वामी जी का भगवा पहनावा साधु-संतों की तरह था। यात्रा के बीच में दो अंग्रेज ट्रेन में चढ़े और स्वामी जी के पास आकर बैठ गए।
अंग्रेजों ने फर्स्ट क्लास में साधु को देखा तो वे हैरान हो गए। उन्होंने सोचा कि साधु-संत पढ़े-लिखे नहीं होते हैं, ये साधु अंग्रेजी नहीं जानता होगा। दोनों अंग्रेज स्वामी जी की बुराई करते हुए कहने लगे कि साधु-संत धरती पर बोझ हैं। दूसरों के पैसों से ट्रेन के फर्स्ट क्लास में सफर करते हैं।
स्वामी जी अंग्रेजी समझते थे और अंग्रेजों की पूरी बातें समझ भी रहे थे, लेकिन उन्होंने आलोचनाओं का जवाब नहीं दिया।
कुछ समय बाद उनके पास टिकिट चेकर आया तो स्वामी जी ने उससे अंग्रेजी में बात की। ये देखकर दोनों अंग्रेजों की हैरानी बढ़ गई। दोनों ने स्वामी जी से क्षमा मांगी। उन्होंने कहा कि जब आप अंग्रेजी जानते हैं तो अपनी बुराई सुनकर चुप क्यों रहें?
स्वामी जी बोले कि जब आप जैसे आलोचना करते हैं तो मेरी सहनशक्ति बढ़ती है। मैं कभी भी धैर्य नहीं छोड़ता। आप अपनी बातें कर रहे थे और मैंने उन बातों धैर्य से सुना और उन्हें सहन किया। अगर मैं गुस्सा करता तो विवाद होता, इसलिए मैं चुप ही रहा।